Saturday, February 12, 2011

ज़िन्दान की एक सुब्ह

दूर दरवाज़ा खुला कोई, कोई बंद हुआ 
दूर मचली कोई ज़ंजीर, मचल कर रोई
दूर उतरा कोई ताले के जिगर में ख़ंजर
सर पटकने लगा रह रह के दरीचा कोई 
Faiz Ahmad Faiz
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ग़म न कर, अब्र खुल जाएगा 
रात ढल जाएगी, रुत बदल जाएगी
Faiz Ahmad Faiz
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यह दाग़ दाग़ उजाला यह शब् गज़ीदा सहर
वह इंतज़ार था जिसका यह वह सहर तो नहीं 
Faiz Ahmad Faiz

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