Thursday, November 8, 2012

लेकिन तमाम उम्र ही चलना पड़ा मुझे


कहने  को  चंद  गाम  था  यह  अर्सए हयात  
लेकिन तमाम  उम्र  ही चलना  पड़ा मुझे 
Wazeer Aagha

Friday, April 27, 2012

बूढ़े माँ बाप का फरमान बुरा लगता है

सच कहूँ मुझ को यह उन्वान बुरा लगता है
ज़ुल्म सहता हुआ इंसान बुरा लगता है

किस क़दर हो गई मसरूफ यह दुनिया अपनी
एक दिन ठहरे तो मेहमान बुरा लगता है

उन की खिदमत तो बहुत दूर बेटों बेटियों की
बूढ़े माँ बाप का फरमान बुरा लगता है

मेरे अल्लाह मेरी नस्लों को ज़िल्लत से निकाल
हाथ फैलाए हुए मुसलमान बुरा लगता है 

Thursday, April 12, 2012

खामोश मिज़ाजी तुम्हें जीने नहीं देगी

खामोश  मिज़ाजी  तुम्हें  जीने  नहीं  देगी 
इस  दौर  में  जीना  है  तो  कोहराम  मचा  दो 
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बहुत  नज़दीक  हो  के  भी  वो  इतना  दूर  है  मुझसे
इशारा  हो  नहीं  सकता , पुकारा  जा  नहीं  सकता

Monday, April 2, 2012

कौन कहता है की मुहब्बत का असर ख़त्म हुआ


हुस्न बाज़ार हुआ क्या कि हुनर ख़त्म हुआ
आया पलको पे तो आँसू का सफ़र ख़त्म हुआ

उम्र भर तुझसे बिछड़ने की कसक ही न गयी ,
कौन कहता है की मुहब्बत का असर ख़त्म हुआ

नयी कालोनी में बच्चों की ज़िदे ले तो गईं ,
बाप दादा का बनाया हुआ घर ख़त्म हुआ

जा, हमेशा को मुझे छोड़ के जाने वाले ,
तुझ से हर लम्हा बिछड़ने का तो डर ख़त्म हुआ.

मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता


मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता
तू इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता

अजब दबाव है इन बाहरी हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता

मैं इक सदा पे हमेशा को घर छोड़ आया
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता

मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता

धुआँ भरा है यहाँ तो सभी की आँखों में
किसी को घर मेरा जलता नज़र नहीं आता.

ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है


वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है

मैं ये मानता हूँ मेरे दिये तेरी आँधियोँ ने बुझा दिये
मगर इक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है
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इबादतों की तरह मैं ये काम करता हूँ
मेरा उसूल है, पहले सलाम करता हूँ

मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ

मैं अपनी जेब में अपना पता नहीं रखता
सफ़र में सिर्फ यही एहतमाम करता हूँ

मैं डर गया हूँ बहुत सायादार पेड़ों से
ज़रा सी धूप बिछाकर क़याम करता हूँ

मुझे ख़ुदा ने ग़ज़ल का दयार बख़्शा है
ये सल्तनत मैं मोहब्बत के नाम करता हूँ

Bashir Badr

Thursday, March 22, 2012

जिस क़दर उस ने खुद नुमाई की

क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
ज़ख्म ही यह मुझे लगता नहीं भरने वाला
Parveen Shakir
राज़ खुलते गए मेरे सब पर
जिस क़दर उस ने खुद नुमाई की
Mirza Qurbaan Ali Saalik
कल तलक तो महरम थे,हमनवा थे, साथी थे
वक़्त के बदलते ही हर कोई मुखालिफ है
Ahmad Raees

Monday, March 19, 2012

ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को

कभी कहा न किसी से  तेरे फ़साने को
न जाने कैसे खबर हो गई ज़माने को
चमन में बर्क नहीं छोडती किसी सूरत
तरह तरह से बनाता हूँ आशिआने को
दुआ बहार की मांगी तो इतने फूल खिले
कहीं जगह न मिली मेरे आशिआने को
मेरी लहेद प पतंगों का खून होता है
हुज़ूर शमआ न लाया करें जलाने को
सुना है गैर की महफ़िल में तुम न जाओगे 
कहो तो आज सजा लूं ग़रीब ख़ाने को
 दबा के कब्र में सब चल दिए न दुआ न सलाम
ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को
अब आगे इस  में तुम्हारा भी नाम आएगा
जो हुक्म हो तो यहीं छोड़ दूं फ़साने को
Qamar Jalaalvi

Sunday, March 4, 2012

भूके ही सो गए बच्चे मेरे रोते रोते

फिर ख़यालों में कोई आ गया सोते सोते
आज की रात भी कट जाएगी रोते रोते
हम को आया नहीं चेहरे की सफाई का ख़याल
बस परेशान रहे आईना धोते धोते
अब किसी पेड़ पे लगते नहीं अखलाक़ के फल
ज़िन्दगी थक गई इस  बीज को बोते बोते
इशक़ तो रिस्ता हुआ ज़ख्म है दिल के हक़ में
दाग़ होता तो निकल जाता वह धोते धोते
एक माँ हो गई बेहोश यह कह कर मोहसिन
भूके ही सो गए बच्चे मेरे रोते रोते 
Mohsin Ummeedi Burhanpuri

यह झूटी सच्ची सताइश क्या अजब शै है

ग़मों की भीड़ में उम्मीद का वह आलम है
के जैसे एक सख़ी हो कई गदाओं में
Baaqi Siddiqi
ज़मीं पे पाँव भी चाहें तो रख नहीं सकते
यह झूटी सच्ची सताइश क्या अजब शै है
Suhail Ghazipuri

Friday, March 2, 2012

रवाँ है काफ़ला तस्कीने राहबर के लिए

न अब वह ज़ौके तलब है, न अब वह अजमे सफ़र
रवाँ   है   काफ़ला   तस्कीने   राहबर   के   लिए 
Hafeez Hoshiarpuri 

Saturday, January 14, 2012

न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो


साफ़ मैदाँ ला मकाँ सा हो तो मेरा दिल खुले
तंग हूँ मामूरए दुनिया की दीवारों के बीच
Mir Taqi Mir

शर्म आती है कि इस शहर में हम हैं के जहाँ 
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो
Jaan Nisaar Akhtar

चला गया मगर अपना निशान छोड़ गया
वह शहर भर के लिए दास्तान छोड़ गया
Sayed Hasan Nasir

Wednesday, January 11, 2012

शरीके मारकए हक सभी नहीं होते


बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब 
कुछ तो है जिसकी पर्दा दारी है 
Mirza Ghalib

सहराए गुफ्तगू से न आगे बढे क़दम
गम उसकी वुसअतों में हर इक कारवाँ हुआ
Jigar Muradabadi

ताने अग्यार सुनें आप खमोशी से शकीब
खुद पलट जाती टकरा के सदा पत्थर से 
Shakeeb Jalali

शरीके मारकए हक सभी नहीं होते
मेरे भी साथ थीं अहबाब की सफें कितनी 
Bashar Nawaz

Sunday, January 1, 2012

आ नए साल बता कैसे मुबारक मैं कहूँ ??


आ  नए  साल  बता  कैसे  मुबारक  मैं  कहूँ ??
लाश  शब्बीर  की  मकतल  में  पड़ी  है  अब   भी 
मेरी  आँखों  में  अभी  शाम  के  कैदी  हैं  बसे 
सहन  में  मेरे  अभी  शामे गरीबाँ  की  सियाही  है  बिछी
मेरा  मलबूस  तो  देख  अब  भी  सोगवार  हूँ  मैं ,
देख  मातम  में  है  सारा  यह  कबीला  मेरा ..
आ  नए  साल  बता  तू  ही  बता  दे  मुझको ,
क्या  कहूँ ?कैसे  मैं  खुश  रंग  क़बा  को  ओढ़ूँ ?
ख़ाक  ओढ़े  अभी  कोनें  की  शहजादी  है ..
सरे मजलूम  सिना  पर  है  तिलावत  करता ,
कोई  बीमार  जो  माँ  बहनों  की  चादर  पे  लहू  रोता  है  ,
कैसे  उसको  मैं  बताऊँ  के  तू  फिर  आया  है  ..
जो  के  ज़िन्दान  में  लम्हों  को  गिना  करती  है ??
वो  यातीमान  के  जो  ढलती  हुई  शामों  में  परिंदों  का  पता  पूछती  है ?
आ  नए  साल  बता  रंग  भरूँ  कोनसा  मैं ?
वोह  जो  सुर्खी  सरे अफ्लाक  है  खूने दिल  की ?
या  सियाही  जो  सरे शामे गरीबां  फैली ?
या  सफैदी  जो  किसी  बीमार  के  बालों  में  उतर  आई  है ?
आ  नए  साल  की  रानाई  चली  जा  के  यहाँ 
मातमी  लोग  हैं  और ,
बिखरे  है  मिटटी  पे  गुलाब ..
बैन  करती  हुई  पियासों  पे  ग़मज़दा  आँखें ..
अपने  पियारों  को  बनाए  है  सदका  शेह  का ,
माओं  बहनों  की  सिसकती  हुई  ज़ख़्मी  आँखें ..
तुझ  से  हो  पाए   तो  बस  काम  यह  इतना  कर  दे ..
खून  का  रंग  फ़क़त  अपनी  क़बा  से  धो  दे!!!