Wednesday, June 22, 2011

जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी

ज़ालिम   था  वो  और  ज़ुल्म  की  आदत  भी  बहुत  थी
मजबूर  थे  हम  उस  से  मुहब्बत  भी  बहुत  थी 
उस  बुत  के  सितम  सह  के  दिखा  ही  दिया  हम  ने
गो  अपनी  तबिय्यत  में  बग़ावत  भी  बहुत  थी
वाकिफ़  ही  न  था  रमज़े  मुहब्बत  से  वो  वरना
दिल  के  लिए  थोड़ी  सी  इनायत  भी  बहुत  थी 
यूं  ही  नहीं  मश्हूरे ज़माना  मेरा  क़ातिल
उस  शख्स  को  इस  फन  में  महारत  भी  बहुत  थी 
क्या  दौरे ग़ज़ल  था  के  लहू  दिल  में  बहुत  था
और  दिल  को  लहू  करने  की  फुर्सत  भी  बहुत  थी 
हर  शाम  सुनाते  थे  हसीनों  को  ग़ज़ल  हम
जब  माल  बहुत  था  तो  सखावत  भी  बहुत  थी 
बुलावा  के  हम  'आजिज़ ' को  पशेमाँ  भी  बहुत  हैं
क्या  कीजिए  कमबख्त  की  शोहरत  भी  बहुत  थी 
Kaleem Aajiz

Saturday, June 18, 2011

मुझ से मिलना, बात करना, देखना, अच्छा लगा

बादलों  का  काफिला  आता  हुआ  अच्छा  लगा 
प्यास की धरती को हर सावन बड़ा  अच्छा  लगा 
उस  भरी  महफिल  में  उस  का  चंद  लम्हों  के  लिए 
मुझ  से  मिलना,  बात  करना, देखना, अच्छा  लगा 
जिन का सच होना किसी सूरत से भी मुमकिन न था 
ऎसी   ऎसी   बातें   अक्सर   सोचना   अच्छा  लगा 
वो तो क्या आता मगर खुशफहमियों के साथ साथ 
सारी  सारी   रात   हम   को   जागना   अच्छा  लगा 
पहले  पहले  तो  निगाहों  में  कोई  जचता  न  था 
रफ्ता  रफ्ता  दूसरा   फिर  तीसरा  अच्छा  लगा
Unknown

Wednesday, June 15, 2011

ये मीर अनीस की , आतिश की गुफ्तगू तो नहीं

मैं  वो  चराग़े  सरे  राह्गुज़ारे  दुनिया  हूँ 
जो अपनी ज़ात की तन्हाईयों में जल जाए 
Obaidullah Aleem
अज़ा  में  बहते  थे  आंसू  यहाँ , लहू  तो  नहीं 
ये  कोई  और  जगह  है  ये  लखनऊ  तो  नहीं 
यहाँ  तो  चलती  हैं  छुरियाँ  जुबान  से  पहले 
ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ्तगू  तो नहीं 
चमक रहा है जो दामन पे दोनों फिरकों के 
बगौर  देखो  ये  इस्लाम  का  लहू  तो  नही
Kaifi Aazmi

Tuesday, June 14, 2011

अपनी नज़रों में हर इंसान सिकंदर क्यूँ है

आइना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन
आइना इस पे है खामोश के क्या है मुझ में 
Kishan Bihari Noor
हंस हंस के जवाँ दिल के हम क्यूँ न चुनें टुकड़े
हर शख्स की क़िस्मत में इनआम नहीं  होता
बहते हुए आंसू ने आखों से कहा थम कर
जो मए से पिघल जाए वो जाम नहीं होता
Meena Kumari 'Naaz'
आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख्म हर सर पे हर हाथ में पत्थर क्यूँ है
अपना अंजाम  तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इंसान सिकंदर क्यूँ है
ज़िन्दगी जीने के काबिल ही नहीं अब फाखिर
वरना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है
Sudarshan Faakhir

कितने जलवों से उलझती हैं निगाहें अपनी

बुतों  की  तरहा सलातीने दहेर  हैं ख़ामोश
 न सामेआ की है क़ुव्वत न क़ुव्वते गुफ्तार 
Aziz Lucknowi
वो भी क्या  लोग  थे आसान थी राहें जिनकी 
बंद  आँखें  किये  इक  सिम्त  चले  जाते  थे 
अक्लो दिल ख्वाबो हकीक़त की न उलझन न ख़लिश 
मुख्तलिफ़  जलवे  निगाहों  को  न  बहलाते  थे
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सफ़र आसान था तो मंजिल भी बड़ी रौशन थी 
आज किस दर्जा पुरअसरार हैं राहें अपनी
कितनी परछाईयाँ आती हैं तजल्ली बनकर
कितने जलवों से उलझती हैं निगाहें अपनी
Aale Ahmad Suroor 

Sunday, June 5, 2011

मैं ने औरों से सुना है के परेशान हूँ मैं

क्यूँ मशअले दिल फैज़ छुपाओ तहे दामाँ
बुझ जाएगी यूँ  भी   के हवा तेज़ बहुत है
Faiz Ahmad Faiz
अपनी हालत का खुद एहसास नहीं है मुझको
 मैं  ने  औरों  से सुना  है   के  परेशान   हूँ  मैं
Aasi Lucknowi
हयात  जिस  की  थी  उसको  लौटा दी
मैं आज चैन से सोता हूँ पाओं  फैला कर
Hafeez Meruthee
दोस्त बन जाएगा वोह दुश्मन भी
हम  जो  बढ़कर  उसे सलाम करें
जब भी हम रेगज़ार से गुजरें
ख़ुश्क फूलों का एहतेराम करें
Maraaq Mirza
आश्याने की मेरे हकीकत न पूछ
चार तिनके थे ,ज़ेरो ज़बर हो गए
Jameel Murassapuri   

Wednesday, June 1, 2011

जिनका ईमान खजूरों के बराबर निकला

मैं  तो  फरयाद  भी  करने  नहीं  दर  दर  निकला
दर्द  की  आह  भी  सीने  में  दबा  कर  निकला
आंसुओं   को  मेरे  शिक्वाह  न  समझ  ले  कोई
जब भी  बाज़ार  में  निकला  तो  संभल  कर  निकला
याद  ने  उस  घडी दिल  पर  बड़ी  दस्तक  दी  है
चौदहवीं   रात  में  जब  चाँद  उभर  कर  निकला
चाँद  सूरज  का  निकलना  तो  तिरा  सदका  है
हाँ  मगर  तू  अभी  परदे  से न  बाहर  निकला
ज़िक्रे  शब्बीर  फरिश्तों  से  भी  तुला  न  गया
कसरे  जन्नत  मिरे  अश्कों   के  बराबर  निकला
कुल्ले  ईमान  की  मसनद  पे  उन्हें  लाए  हैं
 जिनका  ईमान  खजूरों  के  बराबर  निकला