Tuesday, June 14, 2011

कितने जलवों से उलझती हैं निगाहें अपनी

बुतों  की  तरहा सलातीने दहेर  हैं ख़ामोश
 न सामेआ की है क़ुव्वत न क़ुव्वते गुफ्तार 
Aziz Lucknowi
वो भी क्या  लोग  थे आसान थी राहें जिनकी 
बंद  आँखें  किये  इक  सिम्त  चले  जाते  थे 
अक्लो दिल ख्वाबो हकीक़त की न उलझन न ख़लिश 
मुख्तलिफ़  जलवे  निगाहों  को  न  बहलाते  थे
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सफ़र आसान था तो मंजिल भी बड़ी रौशन थी 
आज किस दर्जा पुरअसरार हैं राहें अपनी
कितनी परछाईयाँ आती हैं तजल्ली बनकर
कितने जलवों से उलझती हैं निगाहें अपनी
Aale Ahmad Suroor