Wednesday, June 22, 2011

जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी

ज़ालिम   था  वो  और  ज़ुल्म  की  आदत  भी  बहुत  थी
मजबूर  थे  हम  उस  से  मुहब्बत  भी  बहुत  थी 
उस  बुत  के  सितम  सह  के  दिखा  ही  दिया  हम  ने
गो  अपनी  तबिय्यत  में  बग़ावत  भी  बहुत  थी
वाकिफ़  ही  न  था  रमज़े  मुहब्बत  से  वो  वरना
दिल  के  लिए  थोड़ी  सी  इनायत  भी  बहुत  थी 
यूं  ही  नहीं  मश्हूरे ज़माना  मेरा  क़ातिल
उस  शख्स  को  इस  फन  में  महारत  भी  बहुत  थी 
क्या  दौरे ग़ज़ल  था  के  लहू  दिल  में  बहुत  था
और  दिल  को  लहू  करने  की  फुर्सत  भी  बहुत  थी 
हर  शाम  सुनाते  थे  हसीनों  को  ग़ज़ल  हम
जब  माल  बहुत  था  तो  सखावत  भी  बहुत  थी 
बुलावा  के  हम  'आजिज़ ' को  पशेमाँ  भी  बहुत  हैं
क्या  कीजिए  कमबख्त  की  शोहरत  भी  बहुत  थी 
Kaleem Aajiz