Thursday, March 31, 2011

हम लोग रौशनी में बड़े बा वक़ार है

अहले  महशर देख लूं  क़ातिल को तो पहचान लूं
भोली भाली शक्ल थी और कुछ भला सा नाम था
Saael Dehlavi
चलकर कभी हमारे अँधेरे भी देखिए
हम लोग  रौशनी  में बड़े बा वक़ार है
Tasleem Farooqi
कुछ  तो मजबूरियां रही होंगी
यूँ  कोई  बेवफा  नहीं  होता
Bahsir Badr 
यह कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई  चारा साज़ होता कोई  ग़मगुसार होता
Mirza Ghaalib

Sunday, March 27, 2011

कागज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के

हम गुज़िश्ता सोहबतों को याद करते जाएंगे
आने वाले दौर भी यूहीं गुज़रते जाएँगे
Aziz Lucknowi
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं  फाएदे इस में , मगर अच्छा नहीं लगता
Jaaved Akhtar
किस तरह जमआ कीजिए अब अपने आप को
कागज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के
Aadil Mansuri
शेख जी खुद को करामात बनाए रख्खें 
आलिम हूँ मैं भी इक बज़्म सजाए रख्खें
रात भर वाज़ का मस्जिद में बजा कर केसिट
खुद तो सो जाएँ मोहल्ले को जगाए रख्खें
Sadiq Naseem
इस तरह ख्वाब मेरे हो गए रेज़ा रेज़ा
इस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई

अब तो इस राह से वोह शख्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद से दरवाज़े से झांके कोई

शेहरे वफ़ा में धूप का साथी नहीं कोई
सूरज सरों पे आया तो साए भी घट गए
Parveen Shaakir

Thursday, March 24, 2011

यह मुंबई किसी सहरा में इक चट्टान सा है

महक न फूलों की इस में न पंछियों की चमक
यह  मुंबई  किसी सहरा  में  इक चट्टान सा है

लगाकर  कान  कब्रस्तान  में सुन
के है ज़ेरे ज़मीं कोहराम क्या क्या

यह औरत और पानी एक से औसफ के हामिल
बना  लेते  हैं दोनों रफ्ता रफ्ता  रास्ता  अपना
Irtiza Nishaat 

Wednesday, March 23, 2011

शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना तो नहीं

बेताब  सिर्फ  हाथ  उठाने  की  देर  है
पत्थर निचोड़ सकते हैं मेहनत कशों के हाथ
Betab Nizampuri 
पामाल हम हुए न फ़क़त जौरे चर्ख़ से
आई हमारी जान पे आफत कई तरह
Momin Khan Momin
ज़िन्दगी तुझ से हर एक सांस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना तो नहीं
Muzaffar Waarsi

Sunday, March 20, 2011

मज़्हबे इश्क़ इख्तेआर किया

पतंगे जल गए हारिज कोई रहा नहीं अब
कहो चराग़ से ता सुब्ह बा फ़राग जले 
Shah Torab Kaakorwi
उस के इफाए अहेद तक न जिए 
उम्र   ने   हम  से  बेवफाई   की 

सख्त काफिर था जिस ने पहले मीर
मज़्हबे    इश्क़   इख्तेआर   किया 
Mir Taqi Mir 

Friday, March 18, 2011

वह तो सूरज है जहाँ जाएगा, दिन निकलेगा

वह तो सूरज है जहाँ जाएगा, दिन निकलेगा
रात देखी हो तो समझे के अँधेरा क्या है
Ismat Parvez
शिकवए ज़ुल्मते  शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमआ जलाते जाते
  Ahmad Faraaz

Tuesday, March 15, 2011

नेज़े की नोक पर मुझे हर सर दिखाई दे

बाहर से जो मकान अभी घर दिखाई दे
देखूं अगर मकीन तो खंडहर दिखाई दे
यह ज़ीस्त है या आतिशे नमरूदे वक़्त है
हर गाम मुझे इक नया महशर दिखाई दे
तनहाई में टूटे तो फलक से गिरें आंसू
वोह शख्स देखने में जो पत्थर दिखाई दे
यूँ फन फैलाए बैठी है फिर से यज़ीदिअत
नेज़े की नोक पर मुझे हर सर दिखाई दे
दहशत भरी फ़ज़ा में घिरा सोच रहा हूँ
यूँ रोऊँ के दिल सीने से बाहर दिखाई दे
Mohammad Nawaaz

Thursday, March 10, 2011

इस अदाकारी में हैं उस्ताद सब

सबको दावा-ए-वफ़ा, सबको यक़ीं
इस अदाकारी में हैं उस्ताद सब

शहर के हाकिम का ये फ़रमान है

क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब 
Javed Akhtar

उठ उठ के देखती रही गरदे सफ़र मुझे

पूरा भी होके जो कभी पूरा न हो सका
तेरी निगाह का वो तकाज़ा है आज तक
Feraaq Gorakhpuri
हयातो मौत भी अदना सी इक कड़ी मेरी
अज़ल से लेके अबद तक वोह सिलसिला हूँ मैं
Asghar Gondawi
दामन झटक के वादिए  ग़म से गुज़र गया
उठ उठ के देखती रही गरदे सफ़र मुझे
Ali Sardar Jafri
दोहराता  नहीं मैं भी गए लोगों की बातें 
इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है
Shahryar

Wednesday, March 9, 2011

ला अपना हाथ दे मेरे दस्ते सवाल में

यूँ ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इन्सां जानां
Ahmad Faraaz
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ्र है
ला अपना हाथ दे मेरे दस्ते सवाल में
Siraj Lucknowi
कोई फूलों से सीखे सर्फराज़े ज़िन्दगी होना
वहीँ से फिर महकते हैं जहां से ख़ाक होते हैं
Shifa Gwaliori
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियाँ 
रास्ते गुम हो गए दीवारो दर के दरमियाँ 
Makhmoor Saeedi 

Monday, March 7, 2011

बड़ी बारीक हैं वाइज़ की चालें

अजब वाइज़ की दीँदारी है  या  रब
अदावत  है  इसे  सारे जहाँ  से

कोई  अब  तक  न  ये  समझा  क  इन्सां
कहाँ  जाता  है  आता  है  कहाँ  से  
 
वहीँ  से  रात  को  ज़ुल्मत  मिली  है
चमक  तारों  ने  पाई  है  जहाँ  से

हम  अपनी  दर्दमंदी  का  फ़साना
सुना  करते  हैं  अपने  राजदां  से

बड़ी  बारीक  हैं  वाइज़ की  चालें
लरज़  जाता  है  आवाज़े अजाँ  से  
Allama Iqbal

हर नक्शे पा बुलंद है दीवार की तरह

ऐ दोस्त हम ने तरके मोहब्बत के बावोजूद
महसूस की है तेरी मोहब्बत कभी कभी
Hayaat Amrohi
मिला है जब से लुत्फे ख़ाकसारी
तनज्जुल  में तरक्की कर रहा हूँ
 Amjad Hyderabadi
बे तीशाए नज़र न चलो राहे रफ्तागां 
हर नक्शे पा बुलंद है दीवार की तरह
Majrooh Sultanpuri 
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
Nida Fazli

Saturday, March 5, 2011

दस्ते क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले

आईये   हाथ   उठायें   हम   भी 
हम  जिन्हें  रस्मे दुआ  याद नहीं 
हम जिन्हें सोज़े मोहब्बत के सिवा 
कोई  बुत, कोई  ख़ुदा याद  नहीं 

आईये  अर्ज़  गुजारें  कि  निगारे हस्ती 
ज़हरे इमरोज़  में  शीरीनीए फ़र्दा  भर  दे 
वो  जिन्हें  ताबे गरां बारीए अय्याम  नहीं 
उनकी पलकों पे शबो रोज़ को  हल्का कर दे

जिनकी आँखों को रुख़े सुब्ह का यारा भी नहीं 
उनकी  रातों  में  कोई  शमआ मुनव्वर कर  दे 
जिनके क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं 
उनकी  नज़रों  पे  कोई  राह  उजागर  कर  दे

जिनका  दीँ  पै रवीए किज़्बो रिया  है  उनको 
हिम्मते कुफ्र  मिले, जुरआते तहकीक  मिले 
जिनके  सर  मुन्ताज़िरे तेग़े जफा  हैं  उनको 
दस्ते क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले 

इश्क़ का सिररे निहाँ जान तपाँ  है जिस से 
आज  इकरार  करें  और  तपिश  मिट  जाए 
हर्फे हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह 
आज  इज़हार  करें  और  ख़लिश  मिट  जाए  
 
Faiz Ahmad Faiz - 14 August 1967

Friday, March 4, 2011

दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की

किसी का कब कोई रोज़े सियाह में साथ देता है 
के तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्सां से 
Imam Baksh Naasikh 
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दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की 
लोगों ने मेरे सहन में रस्ते बना लिए 
Saba Lucknowi