Friday, April 27, 2012

बूढ़े माँ बाप का फरमान बुरा लगता है

सच कहूँ मुझ को यह उन्वान बुरा लगता है
ज़ुल्म सहता हुआ इंसान बुरा लगता है

किस क़दर हो गई मसरूफ यह दुनिया अपनी
एक दिन ठहरे तो मेहमान बुरा लगता है

उन की खिदमत तो बहुत दूर बेटों बेटियों की
बूढ़े माँ बाप का फरमान बुरा लगता है

मेरे अल्लाह मेरी नस्लों को ज़िल्लत से निकाल
हाथ फैलाए हुए मुसलमान बुरा लगता है 

Thursday, April 12, 2012

खामोश मिज़ाजी तुम्हें जीने नहीं देगी

खामोश  मिज़ाजी  तुम्हें  जीने  नहीं  देगी 
इस  दौर  में  जीना  है  तो  कोहराम  मचा  दो 
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बहुत  नज़दीक  हो  के  भी  वो  इतना  दूर  है  मुझसे
इशारा  हो  नहीं  सकता , पुकारा  जा  नहीं  सकता

Monday, April 2, 2012

कौन कहता है की मुहब्बत का असर ख़त्म हुआ


हुस्न बाज़ार हुआ क्या कि हुनर ख़त्म हुआ
आया पलको पे तो आँसू का सफ़र ख़त्म हुआ

उम्र भर तुझसे बिछड़ने की कसक ही न गयी ,
कौन कहता है की मुहब्बत का असर ख़त्म हुआ

नयी कालोनी में बच्चों की ज़िदे ले तो गईं ,
बाप दादा का बनाया हुआ घर ख़त्म हुआ

जा, हमेशा को मुझे छोड़ के जाने वाले ,
तुझ से हर लम्हा बिछड़ने का तो डर ख़त्म हुआ.

मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता


मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता
तू इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता

अजब दबाव है इन बाहरी हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता

मैं इक सदा पे हमेशा को घर छोड़ आया
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता

मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता

धुआँ भरा है यहाँ तो सभी की आँखों में
किसी को घर मेरा जलता नज़र नहीं आता.

ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है


वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है

मैं ये मानता हूँ मेरे दिये तेरी आँधियोँ ने बुझा दिये
मगर इक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है
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इबादतों की तरह मैं ये काम करता हूँ
मेरा उसूल है, पहले सलाम करता हूँ

मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ

मैं अपनी जेब में अपना पता नहीं रखता
सफ़र में सिर्फ यही एहतमाम करता हूँ

मैं डर गया हूँ बहुत सायादार पेड़ों से
ज़रा सी धूप बिछाकर क़याम करता हूँ

मुझे ख़ुदा ने ग़ज़ल का दयार बख़्शा है
ये सल्तनत मैं मोहब्बत के नाम करता हूँ

Bashir Badr