Wednesday, December 28, 2011

चराग़े फ़िक्र यकीनन बुझा के सोते हैं


चराग़े  फ़िक्र  यकीनन  बुझा  के सोते  हैं 
मगर  नसीब  की  शम्मा   जला  के  सोते  है 
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वही हम थे जो रोतों को हंसा देते थे
अब यह हाल के थमता नहीं आंसू मेरा
Daagh Dehlavi

तरके ताल्लुकात को इक लम्हा चाहिए 
लेकिन तमाम उम्र मुझे सोचना पड़ा
Fana Nizami Kanpuri